लेखनी प्रतियोगिता -12-Apr-2023 ययाति और देवयानी
भाग 11
शुक्राचार्य की पत्नी जयंती रसोई घर में आ गई । अतिथि सत्कार धर्म का पालन जो करना था । जयंती के पीछे पीछे महारानी प्रियंवदा भी रसोई घर में आ गईं ।
"अरे अरे महारानी जी, ये क्या अनर्थ कर रही हैं आप ? आप तो बाहर बैठिए । आप रसोई घर में शोभायमान नहीं हो रही हैं। आप के सौन्दर्य के तेज को सहने की शक्ति इस छोटी सी रसोई में नहीं है । आपके सौन्दर्य रूपी विद्युत यहां रखी हुई समस्त वस्तुओं पर यदि गिर गई तो उसमें सब कुछ स्वाहा हो जायेगा । फिर आप ही बताइए, एक ब्राहणीभोजन कैसे बनाएगी" ? जयंती परिहास करती हुई महारानी प्रियंवदा से बोली
"आप मुझे महारानी ना कहा करें । आप देवराज इंद्र की पुत्री और महर्षि शुक्राचार्य की पत्नी हैं । आपका स्थान पतिव्रता स्त्रियों में बहुत उच्च स्तर पर है । आप मुझसे हर दृष्टि से श्रेष्ठ हैं इसलिए आप मुझे मेरे नाम से ही संबोधित करेंगी तो मुझे बहुत अच्छा लगेगा" महारानी प्रियंवदा ने सकुचाते हुए कहा
"आप महारानी हैं और महारानी ही रहेंगी इसलिएमैं आपको आपका वास्तविक संबोधन दे रही हूं । पर यदि आपको महारानी कहलाना अच्छा नहीं लगता है तो मैं आपको "सखि" कहकर बुला सकती हूं" ? जयंती ने उत्सुकता से पूछा
"आपने तो मेरे मुंह की बात छीन ली है, सखि । आज से हम दोनों सखियां बन गई हैं । अब हम दोनों एक दूसरे को "सखि" नाम से ही संबोधित करेंगे । क्यों ठीक है ना" ? प्रियंवदा ने मुस्कुराते हुए कहा ।
दोनों स्त्रियां पल भर में ही ऐसी घुल मिल गईं जैसे गंगा और यमुना नदी मिलकर एक हो जाती हैं । स्त्रियों की यह विशेषता है कि वे बड़ी शीघ्र अपने समुदाय (नारी जगत) में घुल मिल जाती हैं । उनकी रुचियां, विषय आदि एक से होते हैं इसलिए उन्हें अनौपचारिक होने में अधिक समय नहीं लगता है । जिस प्रकार दो लताऐं आगे बढ़कर एक दूसरे का हात थाम लेती हैं , ठीक उसी प्रकार दो महिलाऐं भी बहुत शीघ्र एक दूसरे के नजदीक आ जाती हैं । यह गुण बच्चों में सबसे अधिक होता है । वे तुरंत मित्र बन जाते हैं । पुरुषों में झिझक और अविश्वास अधिक होने के कारण उन्हें नजदीक आने में बहुत अधिक समय लगता है । ऐसा नहीं है कि महिलाऐं आपस में अत्यधिक स्नेह का प्रदर्शन करती हैं । वे ईर्ष्या द्वेष भी बहुत करती हैं एक दूसरे से । सर्वप्रथम तो वे अपने सौन्दर्य की तुलना करती हैं । उनकी सबसे बड़ी पूंजी सौन्दर्य ही तो है । मन ही मन एक दूसरे के सौन्दर्य से जलती रहेंगी लेकिन ऊपर ऊपर से एक दूसरे की प्रशंसा भी करती रहेंगी । ईश्वर ने यह गुण नारियों में प्रचुर मात्रा में दिया है । प्रियंवदा और जयंती में प्रगाढ़ मित्रता हो गई इसलिए प्रियंवदा रसोई में जयंती का हाथ बंटाने लगी । छोटी रसोई होने के कारण वे दोनों और भी पास पास आ गई थीं ।
अचानक जयंती की निगाह प्रियंवदा के गले के निचले भाग पर पड़ी । वहां पर एक गहरा निशान बना हुआ था । जयंती की तेज निगाहों ने उसे ताड़ लिया । वह निशान आभूषणों का नहीं था । फिर वह निशान किस का था ? जयंती के मस्तिष्क में उस निशान के बनने की कहानी कल्पना लोक में आकर गुदगुदाने लगी ।
"अरे, ये गले पर निशान कैसा है ? क्या कोई चोट लग गई है" ? जयंती अपने भावों को रोक नहीं पाई और उसने चुटकी लेते हुए कहा । जयंती की आंखों और होठों पर शरारत विद्यमान थी ।
प्रियंवदा जयंती के इशारे को समझ नहीं पाई और उत्सुकता से जयंती को देखने लगी जैसे पूछ रही हो कौन सा निशान ? जयंती भी कुछ कम नहीं थी । उसने अपने मुंह से कुछ नहीं कहा और वह प्रियंवदा का हाथ पकड़ कर दर्पण के सम्मुख ले गई और उस निशान की ओर इशारा करते हुए बोली "ये निशान" । शरारत से जयंती का मुख निखर गया था ।
जयंती द्वारा उस निशान पर उंगली रखने से प्रियंवदा एकदम से घबरा गई और घबराहट में वह दर्पण के सामने से हट गई । उसके नेत्र भारी हो गये । यह समझना मुश्किल था कि उसके नेत्र लज्जा से भारी हुए थे या उन प्रेममयी पलों के स्मरण मात्र से उत्पन्न नशे की तरंगों से भारी हुए थे । गालों पर शर्म की लाली की परत चढ़ गई और होंठ अधखुले से हो गए । वक्षस्थल उद्वेग से और विशाल हो गया जिससे कंचुकी के दो चार बंद एक साथ ध्वस्त हो गये । प्रियंवदा ने कंपन्न करते कंगनों को थामने की नाकाम कोशिश की । उसके बदन पर हलका हलका पसीना आ गया ।
"अरे ये क्या ? आप तो नई नवेली दुल्हन की तरह शरमा गईं ? ये निशान तो सफल दांपत्य की निशानी है । एक पुरुष समर में लगे घावों से उतना ही शोभायमान होता है जितना एक स्त्री "सुरत" में मिले नखक्षत, दंतक्षत और चुंबन के निशानों से शोभायमान होती है । ये निशान उसकी विजय श्री के प्रतीक हैं । आपके गले का यह निशान तो सद्य जात प्रतीत होता है । लगता है कि यह "घाव" कल रात्रि के युद्ध में पुरुस्कार स्वरूप प्राप्त हुआ है । क्यों सही है ना" ? जयंती बिल्कुल एक सखि की तरह प्रियंवदा को छेड़ते हुए उसकी आंखों में अर्थपूर्ण निगाहों से झांकते हुए बोली ।
जयंती की इन बातों से प्रियंवदा बुरी तरह से झेंप गई और अपने दोनों हाथों से अपना चेहरा छुपाते हुए वहीं बैठ गई और लाज के कारण अपने घुटनों में अपना मुंह घुसा लिया । जयंती भी कुछ कम नहीं थी । उसे और अधिक छेड़ते हुए उसके गालों पर चिकोटी काटते हुए कहने लगी "सखि, आप हैं ही इतनी सुन्दर कि बड़े बड़े तपस्वियों का हृदय भी आपके सौन्दर्य रस का पान करने के लिए मचल उठे । मेरा भी मन कर रहा है कि एक निशान मैं भी और बना दूं" । जयंती खिलखिलाते हुए बोली ।
प्रियंवदा लाज से ऐसे सिमट गई जैसे कोई कछुआ अपने समस्त अंगों को सिकोड़कर बैठ जाता है । इन बातों से प्रियंवदा के तन बदन में झुरझुरी सी आ गई । उसने अपना मुंह अपने घुटनों के बीच में घुसा लिया ।
"हमें भी तो पता चले कि ये "घाव" के निशान कल रात्रिकालीन युद्ध में मिले थे या ये पुराने हैं" ? जयंती ने जबरन उसका चेहरा ऊपर उठाते हुए पूछा । "कल रात्रि के ही हैं ना" ?
प्रियंवदा ने हां की सूरत में सिर हिला दिया । जयंती का साहस और बढ़ गया । वह बोली "युद्ध के मैदान में तो असंख्य घाव लगते हैं । ये तो केवल एक ही घाव नजर आ रहा है । बाकी घाव कहां पर लगे हैं ? जरा हम भी तो देखें उन्हें" । और जयंती ने कंचुकी के शेष बंद भी खोलने की चेष्टा की ।
"आप चुपचाप बैठो सखि, नहीं तो मैं आचार्य से आपकी शिकायत कर दूंगी, हां" । प्रियंवदा कृत्रिम रोष पूर्वक वचनों के साथ बोली ।
"क्या कहोगी आचार्य से ? ये कहोगी कि आचार्य मेरी सखि मेरी प्रेम निशानियों को देखना चाहती हैं । क्या इन्हें दिखा दूं" ? हंसते हंसते जयंती बोली ।
"नहीं, मैं कहूंगी कि आचार्य, सखि प्रेम युद्ध के घाव अपने बदन पर देखना चाहती हैं" । अब प्रियंवदा भी लज्जा और संकोच छोड़कर जयंती की मस्ती में सम्मिलित हो गई । वह भी जयंती की कंचुकी की डोर खोलने लगी तो जयंती चिंहुक उठी और दीवार से पीठ लगाकर खड़ी हो गई जिससे प्रियंवदा उसकी कंचुकी खोल नहीं सके ।
"ये घाव इधर नहीं मिलेंगे आपको" । जयंती शरमाते हुए बोली
"क्यों ? ऐसा क्यों है ? सिंह भूखा रह सकता है लेकिन पुरुष बिना "रति युद्ध" के नहीं रह सकता है" । प्रियंवदा ने आश्चर्य से पूछा ।
"दरअसल आचार्य ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हैं" । अब जयंती ने मुंह नीचा कर सकुचाते हुए कहा
"ब्रह्मचर्य व्रत का पालन ? लेकिन आचार्य तो विवाहित हैं फिर ब्रह्मचर्य व्रत का पालन कैसे होगा" ?
"यही तो श्रेष्ठता है आचार्य की । ईश्वर ने जो भी संसाधन उपलब्ध करवाये हैं हमें उनका न्यूनतम उपभोग करना होगा, ऐसा कहना है आचार्य का । इसी प्रकार यह शरीर संतानोत्पत्ति के लिए बनाया है जिसमें "रति क्रिया" एक माध्यम भर है । इसलिए इस क्रिया को न्यूनतम किया जाना चाहिए ऐसा शास्त्र कहते हैं । शास्त्रों में कहा गया है कि पत्नी के ऋतुकाल स्नान के पश्चात ऋतुकाल में केवल एक बार समागम करना पति का कर्तव्य है । उससे अधिक मात्रा में समागम करना भोग लिप्सा में संलिप्तता है जो मनुष्य को भोग लिप्साओं में बांधती हैं । महीने में केवल एक बार समागम करने वाला गृहस्थ भी ब्रह्मचारी ही कहलाता है, ऐसा शास्त्रों में कहा गया है । आचार्य श्रेष्ठ इसी ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हैं । अब तो मेरे रजस्वला होने का समय निकट ही है इसलिए "मेरे युद्ध के मैदान में आपको घाव" दिखाई नहीं देंगे" । जयंती हंसकर बोली ।
वे इस विषय पर कुछ और आगे बात करतीं मगर इसी समय देवयानी और शर्मिष्ठा दोनों वहां आ गईं । उन्हें देखकर दोनों सखियां अपने वस्त्र सही करने लगी । देवयानी जयंती से लिपट कर पूछने लगी "क्या बना रही हो माते" ?
"हलुआ, पूरी , सब्जी और रायता । आपको तो पसंद है ना" ?
देवयानी ने हां की मुद्रा में सिर हिला दिया । जयंती ने शर्मिष्ठा से पूछा "आप क्या खायेंगी पुत्री" ?
"जो दीदी खायेंगी हम भी वही खा लेंगे" शर्मिष्ठा ने अपनी सहमति जता दी ।
जयंती और प्रियंवदा दोनों फटाफट काम करने लगीं । प्रियंवदा ने जयंती से पूछा "सखि , आप एक पतिव्रता स्त्री हैं और आपकी माता शची भी एक पतिव्रता स्त्री हैं । मैं आपसे यह जानना चाहती हूं कि आपने यह पतिव्रत धर्म किससे सीखा । आपकी माताजी ने किससे सीखा ? यदि जानती हो तो शीघ्र बतलाने का श्रम करें ।
"आप सही कहती हैं देवि , मैंने तो यह पतिव्रत धर्म अपनी मां से ही सीखा था और मेरी मां ने इसे महा सती , पतिव्रता और महा विदुषी देवी सावित्री से सीखा था"
"महासती सावित्री से किस प्रकार सीखा था आपकी मां ने यह व्रत ?
"एक बार की बात है जब देवर्षि नारद के साथ मेरी माता पृथ्वी पर आईं थीं । तब देवर्षि मेरी मां को माता सावित्री के आश्रम पर लेकर गये थे । तब उन्होंने माता सावित्री से इस धर्म का ज्ञान प्राप्त किया था" ।
"सुना है कि देवी सावित्री इतनी पतिव्रता स्त्री थीं कि वे अपने पति को जो यमराज के पाश में बंधे हुए थे और जिन्हें यमराज अपने साथ लेकर जा रहे थे, देवी सावित्री यमराज को प्रसन्न करके अपने पति को यमराज की पाश से छुड़ाकर ले आई । तभी तो वे सब पतिव्रता स्त्रियों में सर्वश्रेष्ठ कहलाती हैं । क्या आपको उनका सारा आख्यान पता है ? मैं इसे आपके श्री मुख से सुनना चाहती हूं , सखि" । प्रियंवदा बोली
"अवश्य सखि । मुझे सारा आख्यान पता है । मैं अभी सुनाती हूं, तुम ध्यान से सुनना" । जयंती सावित्री का आख्यान सुनाने लगी
क्रमश :
श्री हरि
3.5.2023